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इ॒न्द्रा॒ग्नी मि॒त्रावरु॒णादि॑तिं॒ स्वः॑ पृथि॒वीं द्यां म॒रुतः॒ पर्व॑ताँ अ॒पः। हु॒वे विष्णुं॑ पू॒षणं॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिं॒ भ॒गं नु शंसं॑ सवि॒तार॑मू॒तये॑ ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indrāgnī mitrāvaruṇāditiṁ svaḥ pṛthivīṁ dyām marutaḥ parvatām̐ apaḥ | huve viṣṇum pūṣaṇam brahmaṇas patim bhagaṁ nu śaṁsaṁ savitāram ūtaye ||

पद पाठ

इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑। मि॒त्रावरु॑णा। अदि॑तिम्। स्व॑रि॒ति॑ स्वः॑। पृ॒थि॒वीम्। द्याम्। म॒रुतः॑। पर्व॑तान्। अ॒पः। हु॒वे। विष्णु॑म्। पू॒षण॑म्। ब्रह्म॑णः। पति॑म्। भग॑म्। नु। शंस॑म्। स॒वि॒ता॑रम्। ऊ॒तये॑ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:46» मन्त्र:3 | अष्टक:4» अध्याय:2» वर्ग:28» मन्त्र:3 | मण्डल:5» अनुवाक:4» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

इस सृष्टि में मनुष्यों को क्या क्या जानना योग्य है, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे मैं (ऊतये) रक्षा आदि व्यवहार की सिद्धि के लिये (इन्द्राग्नी) सूर्य्य और बिजुली (मित्रावरुणा) प्राण और उदान वायु तथा (अदितिम्) अन्तरिक्ष को (स्वः) सूर्य्य और (पृथिवीम्) भूमि को (द्याम्) प्रकाश को (मरुतः) पवनों वा मनुष्यों को (पर्वतान्) मेघों वा पर्वतों को (अपः) जलों को (विष्णुम्) व्यापक धन वा जय को (पूषणम्) पुष्टिकारक व्यान वायु और (ब्रह्मणः) ब्रह्माण्ड के (पतिम्) पालन करनेवाले सूत्रात्मा को (भगम्) ऐश्वर्य और (शंसम्) प्रशंसा करने योग्य (सवितारम्) संसार के उत्पन्न करनेवाले परमात्मा को (हुवे) ग्रहण करता हूँ, वैसे आप लोग (नु) शीघ्र इनको ग्रहण करना चाहिये ॥३॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को विद्युद्विद्या अवश्य स्वीकार करनी चाहिये ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अत्र सृष्टौ मनुष्यैः किं किं वेदितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथाहमूतय इन्द्राग्नी मित्रावरुणादितिं स्वः पृथिवीं द्यां मरुतः पर्वतानपो विष्णुं पूषणं ब्रह्मणस्पतिं भगं शंसं सवितारं हुवे तथा यूयमपि न्वेतानाह्वयत ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्राग्नी) सूर्य्यविद्युतौ (मित्रावरुणा) प्राणोदानौ (अदितिम्) अन्तरिक्षम् (स्वः) आदित्यम् (पृथिवीम्) भूमिम् (द्याम्) प्रकाशम् (मरुतः) वायून् मनुष्यान् वा (पर्वतान्) मेघान् शैलान् वा (अपः) जलानि (हुवे) आदद्मि (विष्णुम्) व्यापकं धनं जयं वा (पूषणम्) पुष्टिकरं व्यानम् (ब्रह्मणः) ब्रह्माण्डस्य (पतिम्) पालकं सूत्रात्मानम् (भगम्) ऐश्वर्य्यम् (नु) सद्यः (शंसम्) प्रशंसनीयम् (सवितारम्) जगदुत्पादकं परमात्मानम् (ऊतये) रक्षादिव्यवहारसिद्धये ॥३॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्विद्युदादिविद्यावश्यं स्वीकार्य्या ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी विद्युतविद्या अवश्य स्वीकारावी. ॥ ३ ॥